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“सैलाना नगर में भव्य नानी बाई रो मायरा कथा का आज दुसरा दिन हुआ सम्पन्न ..क्या है “नानी बाई रो मायरा”?कौन हैं,नरसी मेहता?

“सैलाना नगर में भव्य नानी बाई रो मायरा कथा का आज दुसरा दिन हुआ सम्पन्न ..क्या है “नानी बाई रो मायरा”?कौन हैं,नरसी मेहता?

रतलाम

2/Jun/2024

रतलाम ब्यूरो चीफ कृष्णकांत मालवीय 

रतलाम. यह हमारी मातृ भूमि संतों और मंदिरों की भूमि है। यहाँ पर महात्मा और संतों का जन्म हुआ है। इन व्यक्तियों ने अपने भक्ति भाव से न केवल ईश्वर की प्राप्ति की है। बल्कि दूसरों का जीवन भी प्रकाश से भरा है। नरसी मेहता ऐसे ही एक महान भक्त थे। नरसी मेहता का जन्म गुजरात राज्य में गिर पर्वत के पास जुनागढ़ नगर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब वे बहुत ही छोटे थे। तब ही इनके माता पिता का देहांत हो गया था।​ यह बात रतलाम जिले के सैलाना नगर के रंगवाडी मोहल्ला स्थित शितला माता मंदिर प्रांगण के समिप आयोजन तीन दिवसीय नानी बाई रो मायरो कथा में पंडीत ललीतजी शास्त्री सागाखेड़ा वाले ने श्रद्धालुओं को रसपान करवाते हुए कथा में सुनाई। बतादें की सैलाना में सकल पाटीदार समाज एवं शीतला माता भक्त मंडल रंगवाड़ी मोहल्ला देवरी चौक की ओर से तीन दिवसीय धार्मिक कथा नानी बाई रो मायरो कथा का आयोजन करवाया जा रहा है। कथा के दुसरे दिन भी कथा को सुनने के लिए रात्रि 8 बजे से ही बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंच रहे है।

भक्त नरसी का बालपन-

नरसी मेहता का पालन पोषण नरसी जी के बड़े भाई ने किया था। नरसी मेहता को साधुओं की सेवा करने में बड़ा आनन्द आता था। उन्हीं साधुओं की सेवा करते-करते नरसी जी ने भी सत्संग में भगवान की भक्ति शुरू कर दी। उनकी भाभी ने उनको कई बार इसके लिये ताने दिये। नरसी मेहता का विवाह भी बहुत छोटी आयु में माणिकबाई से करा दिया गया था।​ ​एक दिन नरसी जी की भाभी ने उन्हें खूब खरी खोटी सुनाई। क्योंकि वह घर देर से आये थे। यह अपमान वह सह नहीं पाये और उन्होंने अपने घर का ही त्याग कर दिया तथा वह गिर पर्वत के घने जंगल में कहीं चले गये। वहीं कहीं उन्हें एक शिवालय दिखाई दिया। नरसी जी वहीं रहने लगे और वहीं शिवजी की आराधना में लीन हो गये। फिर सात दिनों बाद स्वयं भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिये और कहा कि जो तुम्हारी इच्छा हो वो वरदान मांग लो।​

भगवान शिव ने कराये कृष्ण के दर्शन-

नरसी मेहता ने वह भक्ति किसी भी प्रकार के फल की कामना में नहीं की थी। इस लिये नरसी जी ने कहा जो आपकी इच्छा हो वो मुझे दे दीजिये। उनके इस वचन से प्रसन्न होकर भगवान शिव उन्हें गौलोक ले गये। गौलोक में भगवान कृष्ण गोपियों के संग रासलीला रचा रहे थे। ऐसा मनमोहित दृश्य देखकर नरसी मेहता उसी में खोकर रह गये। ​वह इस दृष्य को बिना पलकें झपकाए देखते रह गये और भक्ति रस में लीन हो गये। तब ही भगवान कृष्ण ने नरसी जी की ओर देखा और उन्हें अपना आर्शिवाद प्रदान किया और कहा जैसे भक्ति रास में तुम डूबे हो वैसे ही रसपान का आनन्द सारे जगत को कराओ। नरसी जी ने इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया और पृथ्वी पर जगह-जगह कृष्ण भजन गाते हुए मग्न रहने लगे।​​

स्वयं श्री कृष्ण ने ली नरसी की भेजी हुई हुंडी-

नरसी मेहता की ऐसी भक्ति से प्रेरित होकर बहुत से साधु संत उनके साथ भक्ति में लग गये। मगर कुछ लोगों को नरसी जी का प्रसिद्ध होना अच्छा नहीं लगता था। वह लोग नरसी जी को परेशान करने के लिए नए बहाने ढूंढते थे। परन्तु नरसी जी उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया करते थे। एक समय द्वारिका जाने वाले यात्री जूनागढ़ आये उन यात्रियों के पास कुछ धन रखा हुआ था। जिन्हें वह डाकुओं के भय के कारण अपने पास नहीं रखना चाहते थे। इसलिये वे सब एक ऐसे साहुकार को ढूंढ रहे थे, जो उस धन के बदले में एक हुंडी दे दे। उस समय हुंडी एक पत्र होता था। उस हुंडी में रकम और दूसरे सेठ का नाम लिखा होता था और हुंडी लिखने वाले की मोहर तथा हस्ताक्षर होते थे। उसे दूसरे नगर में सेठ को देने पर वह सेठ लिखी हुई रकम दे देता था। इससे रास्ते में हो रही चोरी का खतरा नहीं रहता था। जब यात्रियों ने किसी नगर सेठ का नाम पूछा तो कुछ शरारती व्यक्तियों ने नरसी जी का नाम दे दिया। वह यात्रीगण नरसी जी के पास जाकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि वह उनकी हुंडी लिख दे। नरसी जी ने उनसे कहा कि वह तो एक सन्यासी है। उनके पास कुछ भी नहीं है, कि वह हुंडी लिख दें। परन्तु वह यात्री समझ रहे थे, कि नरसी जी यह सब केवल उन्हें टालने के लिये कह रहे हैं।​ यात्रियों के बहुत आग्रह करने के बाद नरसी मेहता हुंडी लिखने के लिये राजी हो गए। नरसी जी ने श्री कृष्ण पर भरोसा किया और सांवल शाह गिरधारी के नाम की हुंडी लिखी। यात्रीगण श्रद्धा पूर्वक हुंडी लेकर द्वारिका चले गए। वहाँ नरसी जी कृष्ण भजन गाते हुए श्री कृष्ण की लाज रखने की प्रार्थना करने लगे। जब यात्री द्वारिका पहुँचे तो स्वयं द्वारिकाधीश ने सांवल शाह सेठ बनकर हुंडी के बदले में धन दे दिया।​

क्या है ‘नानी बाई का मायरा’?-

‘नानी बाई का मायरा’ भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है। जिसमें ’मायरो’ अर्थात ’भात’ जोकि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है। वह भात स्वयं श्री कृष्ण लाते हैं। नानी बाई नरसी जी की पुत्री थी और सुलोचना बाई नानी बाई की पुत्री थी। सुलोचना बाई का विवाह जब तय हुआ था। तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है, तो वह शादी के लिये भात नहीं भर पायेगा। उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे, तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी। इस लिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई। उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया। जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये। नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया। साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई। परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज थी। वह थी, श्री कृष्ण की भक्ति, इस लिये वे उन पर भरोसा करते हुए। अपने संतों की टोली के साथ सुलोचना बाई को आर्शिवाद देने के लिये अंजार नगर पहुँच गए। उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे। अपने इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो गये और रोते हुए श्री कृष्ण को याद करने लगे। नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी। परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उसे यह कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।​

बारह घंटे हुई स्वर्ण वर्षा-

दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी और तभी सामने देखती है, कि नरसी जी संतों की टोली और कृष्ण जी के साथ चले आ रहे हैं और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है। जिनमें सामान लदा हुआ है। दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी। ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा था, न ही देखेगा, यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किये पर पछताने लगे। उनके लोभ को भरने के लिये द्वारिकाधीश ने बारह घण्टे तक स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की, नानी बाई के ससुराल वाले उस सेठ को देखते ही रहे और सोचने लगे, कि कौन है ये सेठ? और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है? जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि कृपा करके अपना परिचय दीजिये और आप क्यों नरसी जी की सहायता कर रहे हैं?

भक्त के बस में हैं भगवान-

उनके इस प्रश्न के उत्तर में जो जवाब सेठ ने दिया। वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है तथा इस प्रसंग का केन्द्र भी है। इस उत्तर के बाद सारे प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। सेठ जी का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ। इनका अधिकार चलता है। मुझ पर जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं, मैं दौड़ा चला आता हूँ, इनके पास। जो ये चाहते हैं, मैं वही करता हूँ। इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है। ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गए और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था। बस नानी बाई ही समझती थी, कि उसके पिता की भक्ति के कारण ही श्री कृष्ण उससे बंध गये हैं और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं। इस लिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं। इससे यही साबित होता है कि भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं।

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